”कुछ महीने पहले एक कार्यक्रम में एक अनजान चेहरा मेरे सामने आया. वो शख़्स मेरी ओर देखकर गर्मजोशी से मुस्कुराए. उन्हें देख कर मैं काफ़ी घबरा गई. मुझे वहां से निकलने की इच्छा हुई.”
”उनकी इस मुस्कुराहट ने मेरे अंदर हर दिन होने वाली उहापोह को फिर से और तेज़ कर दिया. मुझे लोगों के चेहरे याद नहीं रहते.”
बीबीसी संवाददाता नतालिया ग्यूरेरो अपनी इस ‘कंडिशन’ के बारे में बताती हैं कि उन्हें लोग अजनबी लगते हैं. चेहरे पहचानना उनके लिए हर दिन किसी संघर्ष से कम नहीं होता है.
वो कहती है,”सालों से एक उलझन, एक पहेली जो किसी अजनबी से मिलते ही दिमाग़ का दरवाज़ा खटखटाती है कि ‘कौन हैं ये शख़्स? क्या मैं इन्हें जानती हूं?’ मैं सोचती हूं क्या ये मेरे साथ काम करते हैं? अगर ये मेरे साथ दफ़्तर में काम करते हैं और मैंने उन्हें नहीं पहचाना तो ये कितनी ख़राब बात है.”
क्या है प्रोसोपैग्नोसिया
इसे ऐसे समझें, जब एक इंसान को चेहरे याद नहीं रहते तो दिमाग़ की इस अवस्था को ‘फ़ेस ब्लाइंडनेस’ कहते हैं.
मनोचिकित्सकीय भाषा में इसे प्रोसोपैग्नोसिया के नाम से जाना जाता है. ये दिमाग़ की एक ऐसी अवस्था है जिसमें इंसान अपने जानने वालों तक के चेहरे भी पहचान नहीं पाता.
नोएडा के मेट्रो हॉस्पिटल एंड हार्ट इंस्टिट्यूट में सीनियर कंसल्टेंट न्यूरोलॉजिस्ट डॉक्टर सोनिया लाल गुप्ता बताती हैं, ”कई बार प्रोसोपैग्नोसिया जन्मजात भी हो सकता है.”
”प्रोसोपैग्नोसिया होने के और भी कारण हैं. जैसे कई बार सदमे या फिर दिमाग़ में गहरी चोट लगने से भी इंसान इस अवस्था में जा सकता है.”
दिल्ली के सेंट स्टीफ़न अस्पताल में मनोचिकित्सा विभाग की हेड डॉक्टर रूपाली शिवलकर कहती हैं, ”जब दिमाग़ के निचले दाहिने हिस्से में जहां चेहरे पहचानने की क्षमता होती है वहां खून की सप्लाई नहीं होने पर प्रोसोपैग्नोसिया हो सकता है.”
”जिन लोगों को प्रोसोपैग्नोसिया जन्मजात नहीं होता और किसी वजह से बाद में होता है तो उसका पता एमआरआई से लगाया जा सकता है. एमआरआई रिपोर्ट में दिमाग़ के उस हिस्से में आपको फ़र्क नज़र आ जाएगा, लेकिन जन्मजात प्रोसोपैग्नोसिया में ये स्ट्रकचरल फ़र्क़ नज़र नहीं आता है. उन बच्चों के दिमाग़ का वो हिस्सा विकसित ही नहीं होता है.”